बचपन की धुंधली यादें। एवं डिज़िटल भारत।

Brijesh Yadav
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 आज हर किसी के हाथ में mobile phone कंप्यूटर हैं। दुनिया के किसी भी कोने में कुछ भी होता है तो पल भर में हर किसी को डिजिटल टेक्नोलॉजी की मदत से मोबाइल कंप्यूटर मीडिया में छा जाता है। डिज़िटल टेक्नोलॉजी की देन हैं कि आज हम दूर बैठे किसी मित्र या रिस्तेदार से लाइव वीडियो कॉल कर सकते हैं। हर समय आज लोग सोशल मीडिया के माध्यम से facebook, whattsap,twitter पर एक दूसरे के साथ संपर्क में रहते है। पूरी दुनिया आज लोगो की मुट्ठी में है। फिर भी पड़ोस में क्या हो रहा है। इसकी तक किसी को जानकारी नही रहता कहने को तो दुनिया से कनेक्ट रहते है। किसी के भी चेहरे पर अब वो खुशियां नही दिखाई देती।

 लेकिन एक वो समय था जब कोई टेक्नोलॉजी नही थी। तब लोगो में जो खुशियां थी। रिश्तों में जो मिठास था आज वो नही हैं।

पहले एक फ़ोन करने के लिए, लोगों को किसी अमीर रिश्तेदार या किसी सरकारी महकमे को ढूंढना पड़ता था. अहसान के बोझ तले, बड़ी मशक्कतों बाद फ़ोन लगता था, जिसे उस ज़माने में हम trunk कॉल कहते थे. लेकिन डिजिटल क्रांन्ति की शुरुआत होने के कुछ दिनों के अन्दर ही जगह जगह STD- ISD- PCO- FAX के साइन-बोर्ड दिखने लगे और लोगों की ज़िन्दगी आसान होने लगी.

"चिट्ठी न कोई सन्देश, जाने वो कौन से देश", जैसे गानों का अब कोई औचित्य नहीं रह गया. अब राजेश खन्ना का "डाकिया डाक लाया" जैसा सुरीला गाना, जिसमें वो डाक से भरा थैला लेकर 50-50 मील जाकर, डाक बांटते थे, इस डिजिटल समय के हाथों अस्तित्व विहीन हो चुका था.
इसी तरह, एक वो भी ज़माना था जब टीवी बहुत ही दुर्लभ वस्तु हुआ करती थी. महानगर के घरों में तो दिख भी जाते थे लेकिन इंटीरियर के शहरों और कस्बों में न के बराबर होते थे. और मोहल्ले में इक्का दुक्का घरों में टीवी हो भी तो प्रसारण राम भरोसे होता था. वैसे तो हम नाक ऊँची किए घूमते थे लेकिन जब सन्डे को मूवी आने का टाइम होता था तो रेंगते-रेंगते  बड़े ही अनमने मन से भी, सबसे पहले ही पहुंचते थे, ताकि सीट अच्छी जगह मिल जाये और किसी की मुंडी टीवी और मेरे बीच न आ पाए .

तब छोटे से ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का ऐनटीना स्पेसशिप के आकार का होता था. घर के होनहार, बड़े लड़के पर ये ज़िम्मेदारी होती थी की वो बुद्धवार और शुक्रवार को आने वाले चित्रहार के समय छत पर जा कर ऐनटीना तब तक घुमाए, जब तक कि टीवी की स्क्रीन थोड़ी थोड़ी दिखने लायक न हो जाए, रविवार को मूवी वाला दिन भी ऐसा ही होता था.

राजीव गाँधी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं की भारत के घर घर में टीवी हो. बहुत से लोगों ने उनकी इस बात भरोसा नहीं किया. कहीं पढ़ा था कि राजीव गाँधी ने बीआर चोपड़ा और रामानंद सागर को बुला कर महाभारत और रामायण बनाने की जिम्मेदारी सौंपी और उसका असर ये हुआ कि घर घर टीवी की सपने जैसी बात सचमुच साकार हो गयी.

और फिर हुआ MTV और Star TV का पदार्पण, उनके आते ही The Bold and beautiful, Santa Barbara, Baywatch जैसे सीरियल घर घर पहुँचने लगे और लोगों की सोच में क्रांति आनी शुरू हो गई, बात कुचिपुड़ी और भरतनाट्यम नृत्य से निकल कर ब्रिटनी स्पीयर्स और जे लो के डांस तक पहुँच गयी.
फिर एक ऐसा दौर भी आया जब अमेरिका के सुपर कंप्यूटर्स ने भारत को अपनी तकनीकी देने से मना कर दिया , इस चुनोती से निपटने के लिए भारत ने पुणे में C DAC की स्थापना की और अपना खुद का सुपर कंप्यूटर बनाया.

ख़ुशी की बात है कि वर्तमान प्रधान मंत्री जी भी डिजिटल क्रान्ति के हिमायती हैं, लेकिन ख़ुशी तब और भी हो जो डिजिटल इंडिया की क्रान्ति सिर्फ फेसबुक प्रोफाइल इमेज बदलने तक सीमित न रहे और  ठोस कदम उठाये जाएँ जो आगे  बढ़ कर हर एक भारतीय को इनफार्मेशन और डिजिटल संवाद से लैस कर दे

वैसे फालतू का किट-किट लगा रखा था कि कलयुग है, कलयुग है. अरे काहे का कलयुग. जितने मजे इस युग में हम लोग कर रहे हैं उतने मज़े तो शायद ही किसी युग में किसी ने  किये होंगे. लोगों का तो पता नहीं पर मेरे लिए तो ये युग "सुपर-डुपर युग" है. फालतू में डरवा दिया गया की "रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलयुग आयेगा, हँस चुगेगा घुनका का दाना, कौवा मोती खायेगा". अरे भाई टेक्नोलॉजी सबके पास है जो मन चाहे चुगो, किसने रोका है. हाँ, पर क्या चुगना है, इसकी समझ भी आप में होनी चाहिए। बाकी मर्ज़ी आपकी है.
     आज पूरी दुनिया में अशांति फैली हुई हैं। इसके जिम्मेदार भी आज की सोच और टेक्नोलॉजी ही है।
दुनिया भर में जितना पैसा आधुनिक हथियार बनाने में खर्च हो रहा है। उसका अगर आधा हिस्सा भी मनुष्य  पर खर्च करे तो कोई भी व्यक्ति भूख नही मरेगा।
 परमाणु बम जैसे विनाशक हथियार जो आज अरबो रूपये खर्च करके बना रहे । उससे वो दिन दूर नही जब समूचे मानव जाति का विनाश हो जायेगा।

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